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“हरितालिका व्रत की परंपरा कैसे और कब शुरू हुई हरितालिका व्रत : सनातन परंपरा, आध्यात्मिक महत्व और वर्तमान प्रासंगिकता*

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“हरितालिका व्रत की परंपरा कैसे और कब शुरू हुई हरितालिका व्रत : सनातन परंपरा, आध्यात्मिक महत्व और वर्तमान प्रासंगिकता*

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“हरितालिका व्रत की परंपरा कैसे और कब शुरू हुई हरितालिका व्रत : सनातन परंपरा, आध्यात्मिक महत्व और वर्तमान प्रासंगिकता*

अशोक कुमार पाण्डेय

भाद्रपद शुक्ल तृतीया को मनाया जाने वाला हरितालिका व्रत भारतीय स्त्रियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। यह व्रत मुख्य रूप से सुहागिन एवं अविवाहित महिलाओं द्वारा अखंड सौभाग्य और इच्छित वर की प्राप्ति हेतु रखा जाता है। “हरित” का अर्थ है हर लेना और “आलिका” का अर्थ है सखी, अर्थात यह व्रत उस प्रसंग की स्मृति है जब पार्वती जी की सखियों ने उन्हें विवाह से पहले छिपाकर भगवान शंकर की आराधना हेतु प्रेरित किया।

पौराणिक प्रसंग

पौराणिक मान्यता है कि हिमालय पुत्री पार्वती का विवाह उनके पिता ने विष्णु से करने का निश्चय किया था। किंतु पार्वती जी का मन भगवान शंकर में रमा हुआ था। इस स्थिति में उनकी सखियाँ उन्हें वन में ले गईं और कठोर तपस्या करने का अवसर दिया। अंततः उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया। इसी घटना की स्मृति में हरितालिका व्रत की परंपरा प्रारंभ हुई।
व्रत की विधि और आचार

इस दिन स्त्रियाँ निर्जला या फलाहार व्रत रखती हैं। भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-आराधना के साथ-साथ हरितालिका कथा का श्रवण और पाठ किया जाता है। व्रतधारिणी स्त्रियाँ रात्रि जागरण कर भजन-कीर्तन करती हैं। यह व्रत केवल शारीरिक संयम ही नहीं बल्कि मानसिक एकाग्रता, आस्था और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है।
सनातन और आध्यात्मिक महत्व
पति-पत्नी संबंध का आदर्श : हरितालिका व्रत शिव-पार्वती जैसे दांपत्य आदर्श को स्थापित करता है।
साधना और संयम : उपवास और जागरण साधक को आत्मसंयम, धैर्य और आत्मबल की शिक्षा देते हैं।

स्त्री-शक्ति का प्रतिफलन : पार्वती जी की तपस्या यह संदेश देती है कि स्त्री केवल गृहस्थी की धुरी नहीं, बल्कि तपस्विनी और संकल्पशक्ति की मूर्ति भी है।

भक्ति का प्रतीक : यह व्रत बताता है कि अनन्य श्रद्धा और विश्वास से कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
समाज और परिवार में व्रत की भूमिका

भारतीय समाज में व्रत-उपवास केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि सामाजिक बंधन का साधन भी हैं।

महिलाएँ सामूहिक रूप से यह व्रत करती हैं, जिससे सामूहिकता और बहनापा मजबूत होता है।

परिवार में वैवाहिक जीवन की स्थिरता और पवित्रता का भाव पुष्ट होता है।

नई पीढ़ी को परंपरा और संस्कृति से जोड़ने का अवसर मिलता है।

वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता
आज का समय तेजी से बदलते मूल्यों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के युग का है। ऐसे में हरितालिका व्रत की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है—

संबंधों की मजबूती : आधुनिक समय में दांपत्य जीवन अनेक चुनौतियों से गुजर रहा है। यह व्रत संबंधों को सुदृढ़ और स्थायी बनाने का संदेश देता है।

महिला सशक्तिकरण : यह व्रत दर्शाता है कि स्त्री केवल आश्रित नहीं, बल्कि स्वयं अपने भाग्य और जीवन को आकार देने वाली है।

सांस्कृतिक संरक्षण : वैश्वीकरण और पाश्चात्य प्रभाव के दौर में यह व्रत भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक मूल्यों को सुरक्षित रखता है।

स्वास्थ्य और अनुशासन : व्रत-उपवास आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी शरीर को विषमुक्त करने और मानसिक शांति प्रदान करने का साधन है।
हरितालिका व्रत केवल धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं, बल्कि भारतीय समाज में स्त्री-शक्ति, दांपत्य की पवित्रता और आस्था की दृढ़ता का प्रतीक है। सनातन परंपरा से लेकर आधुनिक युग तक इसकी उपयोगिता बनी हुई है। यह व्रत हमें सिखाता है कि जीवन में सत्य, संयम और संकल्प ही सफलता और सुखमय संबंधों का आधार हैं।

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